चोटी की पकड़–41

पहले दिन। मुन्ना ने सिपाही की आँख बचाकर जमादार को आने की सूचना दी और आड़ में जहाँ बातचीत की थी, रास्ता छोड़कर उसी तरफ चली। 


जमादार ड्योढ़ी में कुर्सी पर बैठे थे। सिपाही खजाने के पास पहरे पर खड़ा था। 


सुबह का वक्त। सूरज की मीठी किरनें शबनम के फर्श पर जोत का समंदर लहरा रही थीं। 

नीचे से पत्तियों की हरियाली अपना रंग उभारती हुई। रँगीन फूल झूमते हुए, मुन्ना सूरज की तरफ रुख किए हुए खड़ी रही। जमादार गए, हाथ जोड़कर कहा, 'रानीजी, जय हो !'

मुस्कुराती हुई मुन्ना चल दी। पहले पहरेदार को पार किया, दूसरे को किया, तीसरे को देखकर रुकी। दूसरी मंजिल पर, वहाँ एकांत था। पहरेदार भी खासा पट्ठा, पठान।
 नाम भी रुस्तम। यह पहरा बुआ के वास के पास लगता था। कुछ आगे पिछवाड़ेवाला जीना, हमेशा थोड़ा प्रकाश। अंदर महल की कितनी ही दालाने, दूसरे-दूसरे महलों से, उस जीने की तरफ गई थीं। मुन्ना रुस्तम के सामने खड़ी हो गई। रुस्तम कुछ देर तक खड़ा हुआ देखता रहा। फिर पूछा, "क्या है?"

"तुम्हारा नाम क्या है?" मुन्ना ने पूछा।

"रुस्तम।"

"मैं रानीजी के पास से आती हूँ, तुम्हें मालूम है?"

"हाँ।"

"तुम तरक्की चाहते हो?"

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